कमरुल खान
बिलग्राम हरदोई ।। आमों का जिक्र करते ही आम के शौकीन लोगों के मुह में पानी आने लगता तमाम गुणों से भरपूर आम को खाने का अपना अलग ही मजा होता है। एक जमाना था कि बिलग्राम के आमों की मिठास देश के कोने कोने में मशहूर थी ऐसी शायद ही कोई आम की प्रजाति बची हो जो बिलग्राम में उस वक्त न पाई जाती हो नगर के चारों तरफ मीलों में फैले आमों के बाग दिखाई देते थे जिनमे तरह के आम के पेड़ पाये जाते थे बाग के मालिक आम खाने से ज्यादा खिलाने के शौकीन हुआ करते थे जो भी आम खाने के बाद उनकी तारीफ करता समझो उसके घर आमों की एक टोकरी पहुँचा दी जाती थी। इन्हीं बागों में कोई गिल्ली डंडा खेलता कोई झूला झूलता कोई मल्हारें गा गाकर दिन बिता देता और शाम होने पर सभी घर आ जाते इन्हीं बागों में अपने बुजुर्गों के साथ बच्चे भी जाया करते थे। वही बच्चे आगे चलकर कोई इमादुल मुल्क, कोई शम्शुलउलमा, जंगबहादुर, खान बहादुर या सर की उपाधि से नवाजे गये यही लोग बड़े-बड़े ओहदों पर रहकर देश का मान बढ़ाया किताबों में लिखा है कि आमों के दाम उस वक्त दो पैसा सेर हुआ करते थे। बिलग्राम के इर्द-गिर्द कबरहा वाला, खटुवा वाला, एहसान वाला, कंजडो वाला, मुंशी वाला, बुजान वाला, गोंधिया वाला, मंडा वाला, हडहा वाला, मोहम्मद इस्माइल वाला, ईदा वाला, कादिर मियां वाला, खैराती वाला? हिजड़ो वाला? रहम मियां वाला, तहसीलदार वाला, खारो वाला, जोगी वाला, पीरजादा वाला, छतरिया वाला, भूतो वाला, काजी साहब वाला, ताड वाला, भुलहा बाग, कंडा वाला, गुंबद वाला, धमन वाला, तलिया बुलाकी वाला, मकसूद अली वाला, मुगल वाला, मन्नीलाल वाला, जैसे सैकड़ों बाग थे जिनमें अब शायद ही कुछ बचें हो ज्यादातर को कटवा कर खेती की जाने लगी है। बदलते वक्त के साथ साथ यहां की हरियाली को मिटा दिया गया है अब चंद ही बाग बचे हुए जिनमें जो खास लोगों के हैं। अब वो खाने के शौकीन हैं लेकिन खिलाने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं। अपने पुरखों के नक्शे कदम पर नगर के चंद लोग ही चल रहे हैं जो कभी कभार लोगों को आम की दावत दे देते हैं। बाकी किसी के पास न तो खाने का वक्त है और न ही खिलाने का अब तो बाग में बौर के आते ही उन्हें फरोख्त कर दिया जाता है।